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नोटबंदी – यह काले धन के ख़िलाफ़ युद्ध तो बिलकुल नहीं है!

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कल्पना कीजिये कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ जाये जिसमें हम, पंजाब और कश्मीर के बॉर्डर पर तो ज़बरदस्त आक्रमण कर दें लेकिन राजस्थान की सीमा खुली छोड़ दें । तो क्या आप उसे ‘युद्ध’ कहेंगे या युद्ध के नाम पर एक भद्दा मज़ाक? कुछ ऐसा ही ‘युद्ध’ हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदीजी ने नोटबंदी के रूप में ‘काले धन’ के खिलाफ छेड़ा है। पिछले 50 दिनों में चुनावी रैलियों से लेकर जापान तक, और ‘नमो ऐप’ के सर्वे से लेकर पिछले हफ्ते की ‘मन की बात’ तक, हर जगह मोदीजी ने नोटबंदी को ‘काले धन के खिलाफ युद्ध’ कहकर संबोधित किया है। लेकिन इस युद्ध में जहां एक ओर आम जनता के लिए रोज़ नए नियम बन रहे हैं, गरीबों के जन-धन खातों पे पाबंदियाँ लगाई जा रही हैं, वहीं देश की लगभग 2000 पॉलिटिकल पार्टियों को इसकी पहुँच से बाहर छोड़ दिया गया है। इसी सन्दर्भ में देश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी श्री नसीम ज़ैदी जी ने पिछले महीने ये आशंका व्यक्त की कि “देश के कुछ राजनीतिक दलों का उपयोग काले धन को सफ़ेद करने में किया जा रहा है।”
जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत राजनैतिक दलों को 20,000 से कम मिले चंदे से सम्बंधित जानकारी चुनाव आयोग या आयकर विभाग को नहीं देनी होती। और वे इस प्रकार बिना दानकर्ता की जानकारी दिए, छोटे-छोटे टुकड़ों में अनगिनत राशि एकत्रित कर सकते हैं। पिछले महीने छपे एक लेख में ये आशंका जताई गई कि इस ‘लूपहोल’ का फ़ायदा उठाते हुए पार्टियां बिना किसी जुर्माने के व बिना कोई इनकम टैक्स दिए, अपना सारा ‘काला धन’ सफ़ेद कर सकती हैं। इस दावे को परख़ने के लिए ABP न्यूज़ ने दिल्ली में पंजीकृत कई राजनैतिक दलों के दिए हुए पतों पर जाकर जांच की, तो पाया कि सच में बहुत सी पार्टियां केवल ‘कागज़’ पर ही रजिस्टर्ड थीं । एसोसिएशन फॉर डेमोक्रटिक रिफॉर्म्स (ADR) की एक रिपोर्ट के अनुसार हमारी पार्टियों की कुल आय का दो-तिहाई से ज़्यादा हिस्सा इन ‘अज्ञात स्त्रोत’ से आता है। वर्ष 2014-15 में भाजपा को 505.26 करोड़ और काँग्रेस को 445.22 करोड़ रूपये इन ‘अज्ञात स्त्रोतों’ से प्राप्त हुए। वर्तमान में देश में 1700 से ज़्यादा पार्टियाँ चुनाव आयोग के साथ पंजीकृत हैं, और आशंका है कि इनमें से काफ़ी पार्टियां इस प्रकार आराम से अपना ‘काला धन’ सफ़ेद कर रही हैं, जिसकी चिंता हमारे मुख्य निर्वाचन अधिकारी भी जता चुके हैं। ऐसे समय में जब आम आदमी के लिए हर रोज़ नियम बदले जा रहे हैं, और तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाई जा रही हैं, इस बात का आश्चर्य होता है कि चुनाव आयोग व सिविल सोसायटी की भरपूर मांगों के बावज़ूद सरकार राजनैतिक दलों को इसके दायरे में लाने के लिए कोई कदम उठाती हुई नहीं दिख रही।
राजस्व सचिव श्री हसमुख अधिया जी के इस बयान कि ‘पोलिटिकल पार्टियों द्वारा नोटबंदी के बाद बैंक में जमा की गई राशि की कोई जांच नहीं होगी’ के बाद जब देश में एक आवाज़ उठी तो वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली ने तुरंत एक प्रेस रिलीज़ जारी करते हुए कहा कि नोटबंदी के ‘बाद’ किसी भी राजनैतिक दल को कोई छूट नहीं दी जा रही। लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि इन दलों को ये छूट तो नोटबंदी से ‘पहले’ से मिल रही है। उसी रिलीज़ में उन्होंने ये भी कहा कि “सभी दलों को अपनी ऑडिट रिपोर्ट और वार्षिक आय व खर्चों का ब्यौरा चुनाव आयोग और आयकर विभाग को देना होता है”। लेकिन ADR द्वारा RTI से प्राप्त किये गए इन दस्तावेजों की रिसर्च से पता चलता है कि वास्तविक सच्चाई इससे काफी अलग है।
हालांकि ये सच है कि राजनैतिक दलों को प्रतिवर्ष अपनी ऑडिट रिपोर्ट जमा करनी होती है, लेकिन इस ऑडिट रिपोर्ट में भी उन्हें 20,000 से कम के टुकड़ों में मिले चंदे की जानकारी न देने की पूरी छूट है, जो कि बसपा की 2013-14 की ऑडिट रिपोर्ट से भी विदित होता है। और तो और क्या सिर्फ अपनी वार्षिक आय व खर्च की जानकारी देने से पार्टियों की जवाबदेही सिद्ध हो जाती है ? भाजपा द्वारा जमा की गयी 2014-15 की वार्षिक स्टेटमेंट को ग़ौर से देखने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने मात्र एक वर्ष में 2.1 करोड़ रूपये ‘मनोरंजन’ पर खर्च कर दिए। अगर इस पर कोई सवाल नहीं उठाये गए, तो क्या भविष्य में कोई किसी पार्टी को 21 करोड़ या 210 करोड़ ‘मनोरंजन’ पर खर्च करने से रोक सकता है? इस प्रकार का अनियंत्रित आय व खर्च, राजनैतिक दलों को क़ानूनी रूप से अपने ‘काले धन’ को सफ़ेद करने का अवसर प्रदान करता है।
ADR द्वारा किये गए एक और विश्लेषण में ये निकल कर आया कि वर्ष 2013-14 में 1703 पंजीकृत राजनैतिक दलों में से केवल 69 ने अपनी आय का ब्यौरा, व केवल 14 दलों ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट चुनाव आयोग को जमा करी, जबकि बाकी 1620 पार्टियों (लगभग 95%) की स्थिति अज्ञात है| तो सवाल ये उठता है कि जब इस देश के 95% राजनैतिक दल बिना किसी जवाबदेही के अपना आर्थिक प्रबंध कर सकते हैं, तो क्या ‘नोटबंदी’ को ‘काले धन के खिलाफ युद्ध’ कहना सही होगा?
पिछले हफ्ते ED के छापे में ये निकल कर आया कि नोटबंदी के बाद बसपा ने 1000 व 500 के नोटों में 105 करोड़ रूपये अपने खाते में जमा किये, जो कि चुनावी चंदों को पारदर्शी बनाने की ज़रुरत को पुनर्बलित करता है। हालांकि इसके बाद पार्टी की प्रमुख, सुश्री मायावती जी ने कहा कि उन्हें ये चंदा 31 अगस्त के बाद से देश भर की जनता से छोटे-छोटे टुकड़ों में मिला है और ये पूरी तरह से क़ानून के दायरे में है। ग़ौरतलब है कि चुनाव आयोग को जमा किये दस्तावेज़ों के अनुसार पिछले दस वर्षों में बसपा को एक भी चंदा 20,000 रूपये से अधिक के रूप में नहीं मिला है।
तो ऐसे समय में जहां आम नागरिक को 5000 रूपये अपने खाते में जमा करने के लिए भी दो अधिकारियों को जवाब देना पड़ रहा है, वहीं राजनैतिक दलों को सैकड़ों करोड़ रूपये अपने खातों में जमा करने की छूट क्यों दी जा रही है, वो भी बिना इस आय का स्त्रोत बताये, और बिना कोई आयकर जमा किये। इसके ऊपर कानपुर की रैली में मोदीजी ने पूरे दम-ख़म के साथ कहा कि ये नियम तो काँग्रेस के समय से चलते आ रहे हैं, और उनकी सरकार ने इसमें ‘एक कौमा या फुल-स्टॉप भी नहीं बदला’। लेकिन अगर मोदजी नोटबंदी को काले धन के खिलाफ ‘युद्ध’ मानते हैं तो वो चुनाव आयोग की नियमित सिफ़ारिशों के बावजूद इन नियमों को बदलने का कोई प्रयास करते हुए क्यों नज़र नहीं आ रहे?
जब प्रधानमंत्री जी के अनुसार देश के भिखारी भी ‘स्वाइप-मशीन’ का इस्तेमाल कर रहे हैं, और वे पूरे देश से कैशलेस जाने की अपेक्षा कर रहे हैं, तो वे स्वयं नेतृत्व दिखाते हुए भाजपा व अन्य राजनैतिक दलों को कैशलेस क्यों नहीं घोषित कर रहे? क्यों उनकी सरकार जिसके पास लोक सभा में पूर्ण बहुमत है, जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके या तत्कालीन एक अध्यादेश पारित करके इस 20,000 रुपए वाले अनुच्छेद को हटाने का कोई प्रयास नहीं कर रही? क्यों CIC के आदेश की अवहेलना करते हुए कोई भी पार्टी RTI के दायरे में नहीं है? इन तथ्यों को देखते हुए यह बात तो साफ़ ज़ाहिर है कि जब तक राजनैतिक दलों को हज़ारों करोड़ रूपये जमा करने और खर्च करने की खुली छूट है, तब तक नोटबंदी को ‘काले धन के खिलाफ युद्ध’ कहना सरासर गलत होगा, क्योंकि किसी भी ‘युद्ध’ में एक मोर्चा खुला नहीं छोड़ा जाता।

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